कोई ज़ालिम किसी मजलूम पर जब ज़ुल्म ढाता है!
ये मन्ज़र देखकर मेरा कलेजा काँप जाता है !
जो इस दर्द-ऐ-ग़म-ऐ-फुरक़त1 का अंदाज़ा लगता है !
वो मेरे आंसुओं की कद्र करना सीख जाता है !
मुहब्बत में बिछड़ने वाला अपनी जाँ गवाता है ?
न जाने कौन सी सदियों की तू बातें सुनाता है !
गुनाहों की नदामत2 से मै अपना मुंह छुपाये हूँ
कफ़न ये मेरे चेहरे से ज़माना क्यूँ हटाता है !
मै आँखों के लिए हर पल उसी के ख्वाब चुनता हूँ !
वो है के मेरी आँखों से मेरी नींदें चुराता है !
भुलाना चाहता है वो भुलाये शौक़ से लेकिन !
हुनर ये भूल जाने का वो मुझसे क्यूँ छुपाता है !
हथेली उम्र भर को ज़र्द3 पड़ जाती है फुरक़त4 में !
किसी का हाथ जब हाथों में आकर छूट जाता है !
तुम्हारी याद का मौसम बहुत ही सर्द है, उस पर
हवा करती है सरगोशी , बदन ये काँप जाता है !
हिलाल इस दौर में कमज़ोर की सुनता नहीं कोई
जिसे देखो वो ही कमज़ोर को आँखें दिखाता है !
१-जुदाई के ग़म का दर्द २-शर्मिंदगी ३-पीली
हम मनुष्य कब तक सह पायेँगे, जुल्म और अत्याचार।
ReplyDeleteविकल्प हो सत्य-अहिँसा-न्याय का, स्वतंत्र रहे जनता और सरकार॥
thanks deepak ji
ReplyDelete