21 November 2010

कोई ज़ालिम किसी मजलूम पर जब ज़ुल्म ढाता है!

कोई ज़ालिम किसी मजलूम पर जब ज़ुल्म ढाता है!

ये मन्ज़र देखकर मेरा कलेजा काँप जाता है !


जो इस दर्द-ऐ-ग़म-ऐ-फुरक़त1 का अंदाज़ा लगता है !

वो मेरे आंसुओं की कद्र करना सीख जाता है !


मुहब्बत में बिछड़ने वाला अपनी जाँ गवाता है ?

न जाने कौन सी सदियों की तू बातें सुनाता है !


गुनाहों की नदामत2 से मै अपना मुंह छुपाये हूँ

कफ़न ये मेरे चेहरे से ज़माना क्यूँ हटाता है !



मै आँखों के लिए हर पल उसी के ख्वाब चुनता हूँ !

वो है के मेरी आँखों से मेरी नींदें चुराता है !


भुलाना चाहता है वो भुलाये शौक़ से लेकिन !

हुनर ये भूल जाने का वो मुझसे क्यूँ छुपाता है !


हथेली उम्र भर को ज़र्द3 पड़ जाती है फुरक़त4 में !

किसी का हाथ जब हाथों में आकर छूट जाता है !


तुम्हारी याद का मौसम बहुत ही सर्द है, उस पर

हवा करती है सरगोशी , बदन ये काँप जाता है !



हिलाल इस दौर में कमज़ोर की सुनता नहीं कोई

जिसे देखो वो ही कमज़ोर को आँखें दिखाता है !

१-जुदाई के ग़म का दर्द २-शर्मिंदगी ३-पीली

2 comments:

  1. हम मनुष्य कब तक सह पायेँगे, जुल्म और अत्याचार।
    विकल्प हो सत्य-अहिँसा-न्याय का, स्वतंत्र रहे जनता और सरकार॥

    ReplyDelete